Saturday, October 24, 2015

स्पेक्ट्रम और 2जी-3जी-4जी-5-जी क्या है?

हाल ही में केंद्र सरकार ने स्‍पेक्‍ट्रम ट्रेडिंग की अनुमति देने के साथ ही इसके लिए दिशानिर्देश भी जारी किए हैं। इसके तहत टेलीकॉम सर्विस प्रदाता कंपनियां एक-दूसरे से अपनी आवश्यकतानुसार स्पेक्ट्रम की खरीद-बिक्री कर सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार ला सकेंगी। इससे महंगे स्‍पेक्‍ट्रम का अधिकतम उपयोग हो सकेगा और कॉल ड्रॉप की समस्‍या से बहुत हद तक राहत मिलेगी। अभी तक टेलीकॉम कंपनियां केवल नीलामी के जरिये ही स्‍पेक्‍ट्रम हासिल कर सकती थीं।

स्पेक्ट्रम क्या है?

मोबाइल फोन आने से पहले देश में पहले 'स्पेक्ट्रम' शब्द का इस्तेमाल इंद्रधनुष के रंगों के लिए ही किया जाता था। स्पेक्ट्रम से हमारा सामना प्रतिदिन होता है, फिर चाहे वह टीवी का रिमोट हो या माइक्रोवेव ओवन या फिर धूप। आखिर यह स्पेक्ट्रम है क्या? और कैसे इस वैज्ञानिक अवधारणा को लेकर सरकारी और कारोबारी फैसले से हमारे और आपके जीवन, जनोपयोगी सेवाओं और लागत पर असर पड़ता है।

स्पेक्ट्रम, 'इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम' का लघु रूप है। स्पेक्ट्रम उस विकिरण ऊर्जा को कहते हैं, जो पृथ्वी को घेरे रहती है। इस इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन (ईएमआर-Electro Magnetic Radiation) का मुख्य स्रोत सूर्य है। साथ ही, यह ऊर्जा तारों और आकाशगंगाओं से तथा पृथ्वी के नीचे दबे रेडियोएक्टिव तत्वों से भी मिलती है।

ईएमआर का एक रूप दिखाई देने वाली रोशनी है, जबकि दूसरा रूप रेडियो फ्रीक्वेंसी (आरएफ-Radio Frequency) स्पेक्ट्रम होता है।

ईएमआर में इन्फ्रारेड और अल्ट्रावॉयलेट किरणों जैसी कई दूसरे प्रकार और असर वाली वेवलेंथ (तरंगदैर्घ्य) भी होती हैं।

हर देश को एक समान ही आरएफ स्पेक्ट्रम मिलता है।

एक वेव या तरंग की लंबाई, उसकी फ्रीक्वेंसी (वेवलेंथ या साइकल प्रति सेकंड) और उसकी ऊर्जा से इसका इस्तेमाल तय होता है।

रेडियो वेव तुलनात्मक रूप से काफी लंबे होते हैं। इनकी वेवलेंथ 1 किलोमीटर से लेकर 10 सेंटीमीटर तक की होता है। इसकी फ्रीक्वेंसी भी 3 किलोहर्ट्ज़ (3,000 साइकिल प्रति सेकंड) से लेकर 3 गीगाहर्ट्ज़ (3 अरब साइकिल प्रति सेकेंड) तक के बीच होती है। इसे माइक्रोवेव्स के नाम से भी जाना जाता है।

सेंटीमीटर और मिलीमीटर की रेंज वाले माइक्रोवेव्स की फ्रीक्वेंसी 300 गीगाहर्ट्ज़ तक हो सकती है। इसके अलग-अलग प्रकार के इस्तेमाल को देखते हुए इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। खाना पकाने वाले माइक्रोवेव में सैकड़ों वॉट बिजली का इस्तेमाल आरएफ वेवलेंथ को उत्पन्न करने में होता है।

ये वेवलेंथ 32 सेमी (915 मेगाहर्ट्ज़) से लेकर 12 सेमी (2.45 मेगाहर्ट्ज़) तक के होते हैं। छोटी ऊर्जा स्रोतों वाले उपकरणों से पैदा होने वाले माइक्रोवेव का इस्तेमाल संचार के साधनों के रूप में होता है और ये काफी कम ऊर्जा पैदा करते हैं।

इन्फ्रारेड वेव छोटी होती हैं और वे काफी गर्म होती हैं। लंबी दूरी वाले इन्फ्रारेड बैंड्स का इस्तेमाल रिमोट कंट्रोल के लिए होता है। इनका इस्तेमाल बहुत कम गर्मी पैदा करने वाले बल्बों में भी होता है।

700-400 नैनोमीटर के वेवलेंथ (करीब 430-750 टेराहर्ट्ज़) का इस्तेमाल सफेद रोशनी उत्पन्न करने के लिए होता है।

छोटी वेवलेंथ से अल्ट्रावॉयलेट किरणों का निर्माण होता है, जो मनुष्य को हानि पहुंचा सकती हैं।  समुद्र के किनारे की धूप में 53 प्रतिशत इन्फ्रारेड, 44 प्रतिशत दिखाई देने वाली रोशनी और 3 प्रतिशत अल्ट्रावॉयलेट किरणें होती हैं।

कुछ छोटी वेव को एक्स-रे कहते हैं और सबसे छोटी वेव को गामा किरणें कहते हैं, जिनका इस्तेमाल चिकित्सा और उद्योगों में होता है।

आरएफ स्पेक्ट्रम का सबसे लाभप्रद इस्तेमाल दूरसंचार और इंटरनेट में होता है। दूरसंचार और ब्रॉडबैंड के लिए 700-900 मेगाहर्ट्ज़ की छोटी फ्रीक्वेंसी काफी फायदेमंद होती हैं। इससे बिना किसी कठिनाई के लंबी दूरी तय की जा सकती हैं।

रेडियो तरंगें भाप और आयन से सर्वाधिक प्रभावित होती हैं। इन पर सूर्य की चमक (सोलर फ्लेयर) और एक्सरे किरणों के विस्फोट का भी असर होता है।

पहाड़ों की वजह से भी रेडियो तरंगों से संचार में काफी असर पड़ता है। छोटी फ्रीक्वेंसी मकानों और पेड़ों को भी पार कर सकती हैं तथा ये पहाड़ों के किनारे से भी निकल सकती हैं।

बड़ी फ्रीक्वेंसी को वातावरण वापस प्रतिबिंबित या सोख सकता है। उन पर दूरी और वर्षा का भी असर होता है।

छोटी फ्रीक्वेंसी के नेटवर्क के लिए ज्यादा टावरों की जरूरत होती है।

2जी-3जी-4जी या 5-जी

ये सभी मोबाइल फोन में तकनीकी विकास के अलग-अलग चरण हैं।

1जी के एनालॉग वायरलेस की शुरुआत 1980 के दशक में हुई थी, जिसका इस्तेमाल कार फोन में होता था।

2जी 1990 के दशक में जीएसएम को अपने साथ लेकर आया आया और इसके साथ सीडीएमए भी आया।

भारत में 2008 में शुरू हुए 3जी में डाटा का हस्तांतरण तेजी से होता है और

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